आंख में लगा तीर अपने हाथों से निकालने वाली-रानी दुर्गावती का इतिहास । Rani durgavati history in Hindi

आंख में लगा तीर अपने हाथों से निकालने वाली-रानी दुर्गावती का इतिहास । Rani durgavati history in Hindi

rani durgavati in Hindi

गोंडवाना की रानी-दुर्गावती की कहानी । Rani Durgavati story in Hindi


"उनकी समाधि को अभी भी उस स्थान पर देखा जा सकता है जहां वह गिरी थी, दो पहाड़ियों के बीच एक संकरी घाटी में। पास में मौजूद बड़े, गोल पत्थरों की एक जोड़ी, उनके शाही ड्रम हैं जिन्हें पत्थरों में बदल दिया गया था। 

ये अभी भी रात के समय जंगल के माध्यम से गूँजते है और उनके योद्धाओं को उनकी समाधि से बुलाते हुए प्रतीत होते है।" (सर विलियम हेनरी स्लीमैन)
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रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को दुर्गा अष्टमी के दिन कालिंजर के दुर्ग में हुआ था जो कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में आता है।

रानी दुर्गावती के पिता का नाम राजा कीर्तिराय था जो कि महोबा के चंदेल राजाओं के वंशज थे।

हाल ही में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ कल्पना जायसवाल ने एक ताम्रपत्र खोजने का दावा किया है जिससे इस बात की पुष्टि हो जाती है कि रानी दुर्गावती का जन्म कालिंजर के दुर्ग में ही हुआ था।
इस ताम्रपत्र में रानी दुर्गावती की जन्म कुंडली भी बनी हुई है जो कि संस्कृत भाषा में है।

कीर्तिराय की एकमात्र संतान दुर्गावती ही थी इसीलिए उन्होंने दुर्गावती को एक पुत्र के समान ही समझा था और उन्हें शस्त्र चलाने की शिक्षा बचपन से ही देने लगे थे। 

13-14 वर्ष की आयु में दुर्गावती बड़े से बड़े जंगली जानवरों का शिकार आसानी से कर लेती थी। 

मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर के निर्माण के लिए भी चंदेल राजवंश को जाना जाता है।

रानी दुर्गावती का विवाह, पुत्र का जन्म तथा पति का निधन


दुर्गावती का विवाह संग्राम सिंह के पुत्र दलपत शाह के साथ हुआ था। संग्राम सिंह के राज्य का नाम गोंडवाना था जिसका केंद्र वर्तमान मध्य प्रदेश का जबलपुर शहर हुआ करता था।

दुर्गावती के विवाह की घटना भी रोमांचकारी थी। दलपत शाह एक प्रसिद्ध वीर और योग्य शासक थे तथा उनके राज्य की व्यवस्था उत्तम थी और सुरक्षा की दृष्टि से भी उनकी सेना इतनी विशाल और समस्त साधनों से युक्त थी कि मुसलमान शासकों को उन पर आक्रमण करने का कभी साहस नहीं होता था।

जब दलपत शाह ने राजकुमारी दुर्गावती के रूप और वीरता की चर्चा सुनी तो उन्होंने दुर्गावती को अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया। दलपत शाह ने अपने एक पुरोहित और दो सरदारों को कालिंजर भेजकर राजा कीर्तिराय के समक्ष अपने विवाह के प्रस्ताव को रखने भेजा।

परंतु दुर्भाग्यवश कीर्ति राय कुछ पुराने ख्यालों के व्यक्ति थे जब उन्हें पता चला कि दलपत शाह उनकी अपेक्षा कुछ नीची श्रेणी के क्षत्रिय हैं तो उन्होंने अन्य सभी बातों की उपेक्षा करके इस विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि हम अपने से नीची श्रेणी के क्षत्रिय को अपनी पुत्री नहीं दे सकते।

कीर्तिराय के अहंकार पूर्ण उत्तर को सुनकर दलपत शाह को बहुत बुरा लगा और उन्होंने एक शक्तिशाली सेना लेकर कालिंजर पर हमला कर दिया। यद्यपि कीर्तिराय वीर थे पर दलपत शाह उनके मुकाबले नई उम्र के जोशीले व्यक्ति थे और उन्हें कालिंजर पर अधिकार करने में ज्यादा समय नहीं लगा।

परंतु दलपत शाह ने कीर्तिराय को पराजित करने के बाद भी उनके साथ किसी भी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया और उनकी कन्या दुर्गावती की कुछ इस प्रकार याचना की मानो कोई बात ही ना हुई हो। उनकी सज्जनता को देखकर कीर्ति राय को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और उन्होंने विधिपूर्वक दुर्गावती का विवाह दलपत शाह के साथ कर दिया।

विवाह के पश्चात दलपत शाह और दुर्गावती सुख पूर्वक अपनी राजधानी गढ़मंडला में रहने लगे और 1 साल के बाद ही एक पुत्र के जन्म होने से दोनों की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। 

पर विधि का खेल कौन समझ सकता है, दो वर्ष बाद ही दलपत शाह बीमार पड़ गए और कुछ समय में उनके जीवन का अंत हो गया। दुर्गावती के शोक संताप का ठिकाना ना रहा। 

पति के ना रहने पर उन्होंने सती होने जाने का निश्चय किया परंतु दलपतशाह के शुभचिंतकों ने 3 वर्ष के राजकुमार के अनाथ हो जाने का भय दिखाकर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया, पुत्र के मुख को देखकर दुर्गावती को विवश होकर इसे स्वीकार करना पड़ा।

पति की मृत्यु के बाद दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण को गद्दी पर बैठाया और स्वयं संरक्षिका के रूप में राज्य की व्यवस्था देखने लगी।

दुर्गावती की चुनौतियां


दलपत शाह की मृत्यु के बाद आसपास के शासकों ने गोंडवाना राज्य पर हमला करके इस पर अधिकार करने का उचित समय समझा।

पहली कोशिश मालवा के शासक बाज बहादुर ने की। बाज बहादुर ने अपनी पूरी ताकत के साथ गढ़मंडला पर हमला कर दिया परंतु दुर्गावती के पराक्रम ने बाज बहादुर को ऐसा पराजित किया कि उसे सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा। इसके बाद अन्य किसी छोटे शासक की यह हिम्मत नहीं हुई कि गढ़मंडला की तरफ आंख उठाकर भी देख सकें।

दुर्गावती के सामने अकबर की चुनौती


जब रानी दुर्गावती आसपास के शासकों से गोंडवाना राज्य की सुरक्षा करने तथा राज्य के प्रबंधन को लेकर कदम उठा रही थी, इस समय दिल्ली के तख्त पर अकबर विराजमान था।

अकबर ने अपनी शक्ति से मालवा और बंगाल को अपने अधिकार में कर लिया था और अब गोंडवाना तथा दक्षिण की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था। रानी दुर्गावती ने भी अकबर के इरादों का अनुमान लगा लिया था पर इतने बड़े सम्राट का सामना करने की शक्ति गढ़मंडला में नहीं थी। 

फिर भी दुर्गावती चुपचाप अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाती रही उन्होंने निश्चय किया कि वह चाहे एक स्त्री हो फिर भी अकबर की किसी अन्याय पूर्ण आदेश को नहीं मानेंगी और ना ही स्वाधीनता को इतनी आसानी से नष्ट होने देंगी।

अकबर के द्वारा गोंडवाना राज्य पर किए गए आक्रमण का कारण

रानी दुर्गावती से अकबर को कोई भी खतरा नहीं था और ना ही दुर्गावती कभी अकबर की सल्तनत पर आक्रमण करके अकबर से शत्रुता करती।

इसके अलावा दुर्गावती एक ऐसी जगह रहती थी जो दिल्ली और आगरा जैसे सत्ता के केंद्रों से बहुत दूर थी।

दरअसल अकबर के द्वारा गोंडवाना राज्य पर हमले का कारण इस राज्य की धन और संपदा ही थी। अकबर और उसका सूबेदार आसिफ खान गोंडवाना के वैभव को देखकर आश्चर्यचकित थे तथा राज्य पर आक्रमण करने के बाद अकूत संपत्ति को लूटना चाहते थे।

युद्ध से पहले अकबर के रणनीति


अकबर ने आसिफ खान को यह आदेश दिया था कि वह गोंडवाना राज्य का हाल-चाल लेता रहे और अपने गुप्तचरो के द्वारा रानी दुर्गावती के कुछ लालची और चरित्रहीन सरदारों को धन और पद का लालच दिखाकर अपनी ओर कर ले।

इसके साथ साथ ही अकबर को यह पता था कि दुर्गावती अपने एक मंत्री जिनका नाम आधार सिंह था, पर बहुत विश्वास करती है।

अकबर ने एक कुटिल चाल चलकर दुर्गावती को एक पत्र भिजवाया और कुछ शासन संबंधी कार्य के लिए आधार सिंह को दिल्ली भेजने का आग्रह किया।

रानी दुर्गावती अपने मंत्री को अकबर के दरबार में बिल्कुल नहीं भेजना चाहती थी परंतु आधार सिंह ने दुर्गावती से कहा कि मैं अकबर के दरबार में जाकर उसकी योजनाओं का पता लगाकर निष्फल करने का प्रयत्न करूंगा।

आधार सिंह के द्वारा बहुत आग्रह करने पर रानी दुर्गावती को विवश होकर उन्हें दिल्ली जाने देने की आज्ञा देनी पड़ी।

दिल्ली पहुंचने पर आधार सिंह ने वही बात पाई जिसकी आशंका थी। अकबर ने पहले तो आधार सिंह को गोंडवाना का शासक और अपना मंत्री बनाने का लालच दिया पर जब इस बात का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उनको जेल खाने में बंद कर दिया गया। इसके बाद अकबर ने आसिफ खान को शीघ्र ही गोंडवाना पर चढ़ाई करने का आदेश दिया।

गोंडवाना राज्य पर पहला और दूसरा आक्रमण बुरी तरह विफल रहना


पहला आक्रमण


गोंडवाना राज्य पर किए गए हमले में मुगलों का प्रमुख हथियार तोपखाना था। गढ़मंडला की सेना की सबसे बड़ी कमजोरी तोपखाने का अभाव था।

जब शत्रु सेना काफी नजदीक आ पहुंची तो रानी दुर्गावती स्वयं घोड़े पर सवार होकर आगे बढ़ी। उस समय वह हाथ में तलवार लिए हुए साक्षात दुर्गा की तरह दिखाई दे रही थी। उन्होंने मुगलों की तोपों को व्यर्थ करने के लिए अपना मोर्चा ऐसी पहाड़ी पर बनाया था जहां तोपों के गोले उस स्थान तक पहुंच ही नहीं सकते थे वह बीच में पहाड़ से टकराकर ही व्यर्थ हो जाते थे। 

इस प्रकार जब शत्रु की तोपे अपना बहुत सा गोला बारूद बर्बाद कर चुकी थी और गोला बारूद बिल्कुल खत्म हो गया था तब दुर्गावती ने मुगल सेना पर जोरों से हमला किया तथा मुगल सेना में घुसकर ऐसी मार काट मचाई कि मुगल सेना के छक्के छूट गए। आसिफ खान को अपने कैंप को कई मील पीछे हटाना पड़ा और दुर्गावती के सेना विजय का डंका बजाती हुई अपने कैंप में वापस आ गई।

दूसरा आक्रमण

आसिफ खान अपनी इस बुरी पराजय से बहुत दुखी हुआ। उसकी गिनती मुगल साम्राज्य के प्रसिद्ध सेना अध्यक्षों में की जाती थी और इससे पहले वह अनेक राजाओं को जीतकर मुगल सम्राट के अधीन कर चुका था। परंतु अब एक स्त्री से हारकर उसे अपना मुंह दुनिया को दिखाने में शर्म आ रही थी।

दूसरी बार आसिफ खान ने अपने सिपाहियों को तोपखाने के पीछे चलने का निर्देश दिया। दूसरी ओर रानी दुर्गावती मुगल सिपाहियों पर हमला करना चाहती थी इसलिए उन्होंने अपनी सेना को तोपों के सामने ही चलने का निर्देश दिया।

यह बड़ा कठिन अवसर था। शत्रु के सैनिक तो तोपों की आड़ लेकर लड़ रहे थे परंतु गढ़मंडला के सैनिक तोपो के अभाव में गोली और गोलो का सामना अपनी छाती से कर रहे थे।

सैनिकों में थोड़ी निराशा देख दुर्गावती ने उनका उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि 

"यद्यपि हमारे पास तोपे नहीं है फिर भी उससे भी शक्तिशाली आत्म बल हमारे पास है। 

हम स्वदेश की रक्षा के लिए सत्य और धर्म के अनुकूल युद्ध कर रहे हैं, यह कम महत्व की बात नहीं है। याद रखो सत्य की सदा विजय होती है असत्य कि नहीं। ये 10-20 तोपे मातृभूमि के मतवालों को आगे बढ़ने से कदापि नहीं रोक सकती।"

यह कहकर दुर्गावती ने एक बड़ी संख्या में सैनिकों को साथ लेकर मुगलों के तोपखाने पर धावा बोल दिया। 

यद्यपि इस संघर्ष में सैकड़ों योद्धाओं को अपना बलिदान देना पड़ा परंतु आखिरकार दुर्गावती ने तोपों के पास पहुंच कर तोपों के गोले दागने वालों का सफाया कर दिया। इस प्रकार तोपखाने को निष्क्रीय होता देख आसिफ खान घबरा गया।

इसके बाद कुछ समय में गढ़मंडला की शेष सेना भी वहां पहुंची और बादशाही सेना पर ऐसी मार पड़ी है कि वह प्राण बचाने के लिए फिर से भाग खड़ी हुई।

गढ़मंडला पर तीसरा और अंतिम आक्रमण


द्वितीय आक्रमण में विजय पाकर गढ़मंडला की सेना उल्लास में आकर जश्न मनाने लगी और अनुशासन ढीला पड़ गया। उधर आसिफ खान दो बार हार जाने से बुरी तरह क्रोधित था और अपने सभी सलाहकारों को एक साथ बुलाकर आगे की योजना पर विचार कर रहा था। 

उसी समय पर उससे मिले हुए गढ़मंडला के विश्वासघाती कुछ व्यक्तियों ने उसके कैंप में पहुंचकर खबर दे दी कि इस समय गढ़ मंडला की सेना जश्न में डूबी हुई है, अगर इस समय आकस्मिक रूप से आक्रमण किया जाता है तो दुर्गावती और उनकी सेना को तैयार होने का अवसर नहीं मिल पाएगा और नगर पर आसानी से कब्जा किया जा सकेगा। आसिफ खान तो ऐसे ही मौके की तलाश में था उसने घर के भेदियो के साथ उसी समय किले पर धावा बोलने की आज्ञा दे दी। 

जब यह समाचार दुर्गावती को पता चला तो वह गंभीर हो गई फिर भी युद्ध की अभ्यस्त होने के कारण वह घबराने वाली नहीं थी उन्होंने शीघ्रता से जितनी सेना इकट्ठा हो सकती थी उसे एकत्रित किया और घमासान युद्ध का आरंभ हुआ।

तीसरी बार में सेना में जो कमजोरी दिखाई दे रही थी उसको पूरा करने के उद्देश्य से दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण को सैन्य संचालन का भार दिया। 

अपने 17 वर्षीय पुत्र वीर नारायण को सैन्य संचालन देने के पीछे दुर्गावती की यही सोच थी कि अपने किशोर राजा को आगे बढ़ते देखकर सैनिकों का उत्साह बढ़ेगा और वे पराक्रम से शत्रुओं का सामना कर पाएंगे और उनके छक्के छुड़ा देंगे।

वीर नारायण बड़ी बहादुरी से अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे थे और मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार रहे थे इसी बीच रानी दुर्गावती ने वीर नारायण को बहुत से शत्रु सैनिकों से अकेले लड़ते लड़ते घोड़े से गिरते देखा। 

साथ ही यह समाचार आया कि तोपों की मार से किले की दीवार एक स्थान पर टूट गई है। दुर्गावती ने समझ लिया कि बस अब अंत आ गया है तथा वीर नारायण के वीरगति पाने से अब उनका जीवन से तनिक भी मोह नहीं रह गया था अतः वह चुने हुए 300 सैनिकों को लेकर मुगल सेना पर टूट पड़ी और सैकड़ों मुगल सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया। 

पर अचानक एक तीर उनकी आंख में लगा जिसे उन्होंने अपने हाथ से खींच कर बाहर निकाला इतने में दूसरा तीर गर्दन में लगा इससे रानी दुर्गावती को असह्य पीड़ा होने लगी। 

उसी समय रानी ने अपने मंत्री आधार सिंह को सामने देखकर कहा 

"मैं रक्त के निकलने से मूर्छित हो रही हूं, मैं कभी नहीं चाहती कि शत्रु मुझे जीवित अवस्था में छू सके इसीलिए तुम तलवार से मेरी जीवन लीला समाप्त कर दो।"

पर आधारसिंह इस बात को सुनकर कांप उठे और उन्होंने भरे हुए कंठ से कहा मैं असमर्थ हूं महारानी! मेरा हाथ आप पर नहीं उठ सकता। 

आधार सिंह के इतना कहते से ही रानी दुर्गावती अपनी बेहोशी की हालत से अचानक उठ कर बैठ गई और अपने कटार को जोर से अपनी छाती में घोपकर अपनी मृत देह को त्याग दिया।

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इसके पश्चात मुगल सेना को कोई ओर रोकने वाला नहीं था। उन्होंने नगर में घुसकर बहुत सी मारकाट मचाई तथा गढ़मंडला के खजानो तथा महलों की सभी संपत्ति को लूट लिया।

परंतु दूसरी ओर गोंडवाना के गौरव का दीपक सदा के लिए बुझ गया।



Some Frequently asked questions about Rani Durgavati


  • रानी दुर्गावती किस राज्य की महारानी थी

रानी दुर्गावती गोंडवाना राज्य की महारानी थी जिसका केंद्र वर्तमान का जबलपुर शहर होता था जो कि मध्य प्रदेश में स्थित है।

  • रानी दुर्गावती की मृत्यु कैसे हुई
रानी दुर्गावती को पहला तीर उनकी आंख में लगा था जिसे उन्होंने निकाल दिया दूसरा तीर उन्हें गर्दन पर लगा जिससे उन्हें बहुत पीड़ा हुई अंत में शत्रु उन्हें जीते जी छू ना पाए इसलिए रानी दुर्गावती ने कटार घोपकर वीरगति प्राप्त की।

  • रानी दुर्गावती की जयंती कब मनाई जाती है
5 अक्टूबर को रानी दुर्गावती की जयंती मनाई जाती है।

  • रानी दुर्गावती बलिदान दिवस (शहादत दिवस) कब मनाया जाता है
जिस तरह महाराणा प्रताप ने जंगलों में रहकर मुगलों का सामना किया लगभग उसी प्रकार का संघर्ष रानी दुर्गावती ने मुगलों से किया। रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस या शहादत दिवस हर साल 24 जून को मनाया जाता है।

  • रानी दुर्गावती की समाधि कहां है
रानी दुर्गावती का समाधि स्थल जबलपुर जिले के नरई नाला में स्थित है।

  • रानी दुर्गावती का नाम इतिहास में क्यों अमर हुआ
अपने पति की मृत्यु के बाद अनुभव नहीं होने के बाद भी कुशलता से राज्य संभालना, अकबर और आसिफ खान के दो आक्रमणों को निष्प्रभावी करना तथा अपने राज्य का सम्मान, स्वाभिमान व स्वतंत्रता बनाए रखना इन्हीं सब कारणों से दुर्गावती का नाम इतिहास में अमर हो गया।

  • रानी दुर्गावती के पुत्र का नाम क्या था
रानी दुर्गावती के पुत्र का नाम वीर नारायण था।

  • रानी दुर्गावती के माता पिता का नाम क्या था
रानी दुर्गावती के पिता का नाम राजा कीर्ति राय था व माता का नाम माहोबा था।

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